Friday 15 January 2016

शहीदों की चिताओं पर सियासत


पठानकोट हमले में शहीदों की चिताएं सर्द भी न पडीं कि सियासती लोगों ने दांव पेंच खेलने शुरू कर दिए ! कोई इसे प्रधानमंत्री मोदी को नवाज़ शरीफ़ की तरफ़ से मिला पठानकोट रिटर्न गिफ्ट मानता है ,तो कोई अजीत डोवाल की नाकामी ! विपक्ष तो पुरवाई भांपते ही शुरू हो जाता है, वो उनका काम है ! इस सबके बावजूद देश की अखंडता के प्रति कुछ उद्विग्न मन हैं, जिन्हें आतंकी हमले का जवाब पाकिस्तान पर सैन्य हमला बिलकुल नहीं दिखता ! पाकिस्तान पूरी तरह से सैन्य नियंत्रण में है, लोकशाही के वहां कोई मायने नहीं ! पीएम नवाज़ सेना के हिसाब से ही काम कर सकते हैं ! भारत से उनकी कोई तुलना नहीं क्योंकि, भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था जैसा दूसरा लोकतंत्र इस विश्व में कहीं नहीं है !
          देखा जाए तो ये भी सही है की पठानकोट की घटना ने मोदी सरकार और उसकी नीतियों पर भी सवालिया निशाँ खड़े कर दिए हैं ! सवाल बड़े वाज़िब जान पड़ते हैं, क्योंकि मनमोहन सिंह जी की सरकार के दौरान भाजपा नेता उन्हें नाकारा कहते थे ! पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने का वादा करने वाले नरेंद्र मोदी आज तक देशवासियों को यह नहीं बता पाए हैं कि उनकी पकिस्तान नीति क्या है जबकि वह रेडियो पर नियमित रूप सेमन की बात' कार्यक्रम के अंतर्गत देश की जनता को संबोधित करते हैं ! हुर्रियत नेताओं से भेंट के पीछे क्या सोच है ? सत्तारूढ़ होने पर परिस्थितियों में परिवर्तन हो जाता है ! मंच और कुर्सी में ये बारीक फर्क है !
खबर आ रही है कि भारत दोनों देशों के विदेश सचिवों की इस माह होने वाली बातचीत को टाल सकता है ! कहा जा रहा है कि मोदी सरकार, नवाज़ शरीफ सरकार को कुछ समय देना चाहती है ताकि बातचीत होने से पहले वह जैश-ए-मुहम्मद के खिलाफ कार्रवाई कर सके ! संदेह इस बात का भी है कि क्या नवाज़ शरीफ सरकार इस संगठन के खिलाफ कोई कदम उठा पाएगी क्योंकि पाकिस्तानी फौज उन्ही आतंकी संगठनों के खिलाफ़ कार्रवाई के पक्ष में है जो पाकिस्तानी हितों के खिलाफ़ काम करते हैं ! जिन संगठनों के निशाने में भारत रहता हैं उन्हें पाकिस्तानी सेना का हमेशा से समर्थन मिलता रहा है ! कई सैन्य विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तानी सरकार से हुई किसी भी बातचीत और समझौते का तब तक कोई अर्थ नहीं है जब तक उसे वहां की सेना की मंजूरी ना मिले ! वैसे तो जब पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ़ वहां के राष्ट्रपति भी थे,तब 6 जनवरी,2004 को उन्होंने भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई जी को लिखित आश्वासन दिया था कि पाकिस्तान के नियंत्रण वाली ज़मीन को भारत-विरोधी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल नहीं होने दिया जाएगा, लेकिन इस आश्वासन का कितना ध्यान रखा गया ये 26 /11 के मुंबई हमलों और पठानकोट हमलों से साफ़ हो जाता है !
 जिस एयरबेस पर आतंकवादियों ने तड़के हमला बोला, पठानकोट का वह एयरफ़ोर्स  स्टेशन हमेशा से पाकिस्तान को खटकता रहा है। इसका एक कारण 1971 की जंग की वो यादें भी हैं, जिनमें इसी एयरबेस से भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान को छठी का दूध  याद  दिला दिया था। और तो और पठानकोट के इस स्टेशन के बारे में जानकर आपको गर्व  महसूस होगा ! 5 दिसंबर 1971 को भारतीय वायुसेना ने सुबह 4 बजे इसी एयरफोर्स  स्टेशन से उड़ान भरी थी। उस वक्त सीमा पर जंग छिड़ी हुई थी और पाकिस्तानी  फ़ौज तेजी से आगे बढ रही थीं। सुबह तड़के जंग पर निकले चार विमानों  ने पाकिस्तानी फ़ौज पर बम गिराए और साथ ही साथ वाल्टन एयरफील्ड पर एक पाकिस्तानी रडार को नष्ट कर दिया। उस दिन वायुसेना ने लाहौर सेक्टर तक पाकिस्तानी सेना को परेशान करके रख दिया था ! शाम को तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने युद्धविराम का ऐलान कर दिया।
ये दास्ताँ कुछ नई नहीं है, पाकिस्तान हर बार मुह की खाता है फिर भी बाज़ नहीं आता ! नीयत में खोट दरअसल पाकिस्तानी सेना के है जिसके हुक्मरान भारत पाक के बीच किसी भी शांतिवार्ता को सफ़ल नहीं होने देना चाहते ! पकिस्तान सेना चीफ़ राहील शरीफ भारत के खिलाफ भड़काऊ टिपण्णी करते बाज नहीं आते ! पीएम मोदी की इस यात्रा से कुछ समय  पहले ही राहील शरीफ ने जंग की सूरत में भारत को अंजाम भुगतने की चेतावनी देते हुए कहा था , “हमारी फौज हर तरह के हमले के लिए तैयार है ! अगर भारत ने छोटा या बड़ा किसी तरह का हमला कर जंग छेड़ने की कोशिश की तो हम मुहतोड़ जवाब देंगे और उन्हें ऐसा नुक्सान होगा जिसकी भरपाई भी मुश्किल होगी !” ये शब्द पाकिस्तानी सेना की 1971 वाली करारी शिकस्त से पैदा हुई अविस्मर्णीय झुंझलाहट के द्योतक हैं ! आज पाकिस्तानी सेना भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, स्मगलिंग और आतंकवाद में बुरी तरह उलझी हुई है ! पकिस्तान की सारी संपत्ति का 56 फ़ीसदी सेना के अधिकारियों ने हथिया रखा है ! पकिस्तान के जितने भी आर्मी चीफ रहे हैं, चाहे वो जिया उल हक  हों या परवेज़ मुशर्रफ , सब धुर भारत विरोधी रहे हैं ! ऐसी सेना का मनोबल कैसा होगा ये अनुमान लगा पाना मुश्किल नहीं !
बहरहाल, युद्ध किसी भी समस्या का हल कतई नहीं ! ये समय प्रधानमन्त्री मोदी के इम्तेहान का नहीं बल्कि पाकिस्तानी सरकार है, जिसे भारत ही नहीं बल्कि दुनिया को ये माकूल जवाब देना ही होगा कि और कितने पठानकोट,मुंबई, संसद भवन हैं जिनपर उन्हें अपने आतंकी कदम रखने पड़ेंगे ? क्या हासिल होगा मासूमों के क़त्ल से ? ज़मीन? वही ज़मीन जिसमे भारतीय सेना के शौर्य ने पाकिस्तानी सेना के जवानों को जाने कितनी बार दो गज नीचे दफ्न किया है ! जरूरत हमारे देश के अवाम और नेताओं को भी एक सबक लेने की है ! वो ये कि कोई भी नेतागिरी और सत्ता स्वार्थ देश के हित से ऊपर नहीं है ! हमें एकजुटता और अखंडता से कभी मुह नहीं मोड़ना चाहिए ! इससे सेना को बल मिलता है ! सरहद पर जान देने वाला सिपाही  मासिक वेतन के लिए नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा में अपने प्राण देता है ! कुछ लोग इसे मज़हब से भी जोड़ देते हैं ! उनकी सोच कब बदलेगी ये तो पता नहीं लेकिन दुनिया की सोच बदल रही है, भारतवर्ष के प्रति ! अमेरिका ने भी इस हमले पर चिंता जताते हुए पकिस्तान से निष्पक्ष जांच की मांग उठाई है ! अमरीकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता जॉन किर्बी ने कहा, “ हमें गहन ,पूर्ण निष्पक्ष और पारदर्शी जांच प्रक्रिया की उम्मीद है और इसके परिणाम का इन्तेजार है ! यह पता करना पकिस्तान का काम है की जांच में कितना समय लगेगा !”
दुनिया की नज़र भारत की तरफ़ है ! पठानकोट ने पकिस्तान के आतंक प्रेम का चेहरा एक बार फिर दुनिया के सामने उघाड़ कर रख दिया है ! ऐसे में हमें धैर्य और सामंजस्य बनाए रखने की महती आवश्यकता  है !

-Anand R. Dwivedi
Gwalior MP India

Wednesday 23 April 2014

 

  मिस तो हूँ पर मिस नहीं करती : लिली  थॉमस



                      “’देश के भविष्य का फैसला उनके हाथों में हो जो आपराधिक पृष्ठभूमि से आते हैं या फिर जो भ्रष्ट हैं। इसीलिये मैंने अदालत में ये लड़ाई लड़ी। अगर हम वकील होकर इसके लिए नहीं लड़ेंगे तो फिर कौन करेगा। “
                         ये शब्द हैं उस महिला के जो न सिर्फ़ एक वकील हैं, बल्कि न्याय की सफल प्रहरी भी हैं। सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता लिली थॉमस मूलतः केरल की रहने वाली हैं। लिली थॉमस ने सन 1954 में मद्रास विश्वविद्यालय से एल.एल.बी. डिग्री हासिल की तत्पश्चात 1960 में उन्होंने पहली महिला एल.एल.एम. होने का भी गौरव प्राप्त किया। उन्होंने विवाह नहीं किया जिसका उन्हें कोई मलाल नहीं। जस्टिस देसाई द्वारा कोर्ट रूम में पूछे जाने पर कि “ मैडम काउंसिल, आप मिस हैं या मिसेस?” थॉमस चतुराई से उत्तर देती हैं,” निःसंदेह मैं मिस ही हूँ, लेकिन मैं ज्यादा मिस नहीं करती।” अमूमन महिला वकील होना एक चुनौतीपूर्ण काम माना जाता है और इसी मिथक को धता बताने का नाम है लिली थॉमस।
                   85 वर्षीय लिली थॉमस देशहित में युवा ऊर्जा के साथ वकालत करती हैं जिनका उच्चतम न्यायालय के शीर्ष अधिवक्ताओं में शुमार है। उनका मानना है कि महिला वकील की निर्भीक एवं बेबाक छवि उसका सबसे कारगर हथियार होता है।
                         उनकी इसी निर्भीकता का परिणाम हाल ही में एक फैसले के रूप में सामने आया, जिसमे देश की शीर्ष अदालत ने “जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(4) “ को असंवैधानिक घोषित किया। धारा 8(4) ऐसा लूपहोल था जिससे अपराधी देश की संसद और प्रदेशों की विधान सभाओ में घुसते थे।
                       न्यायमूर्ति एके पटनायक और न्यायमूर्ति सुधांशु ज्योति मुखोपाध्याय की खंडपीठ ने यह फैसला अधिवक्ता लिली थॉमस और गैर सरकारी संगठन लोक प्रहरी की जनहित याचिका पर 10 जुलाई 2013 को सुनाया। यह फैसला 10 जुलाई 2013 से ही लागू हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, “ संसद ने अपने अधिकार की हदें पार करके इस तरह का प्रावधान निर्मित किया जो की संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल है। लिली थॉमस इसे एक बड़ी जीत मानती हैं। निश्चय ही इसे भारत की एक नारी का ऐतिहासिक सफल प्रयास कहना कतई गलत नहीं है। देश राजनीतिक संक्रमण की स्थिति से गुजर रहा है, ऐसे में लिली थॉमस ने मील का पत्थर गढ़ दिया। उनकी तरफ से केस की पैरवी फाली एस.नरीमन ने की जो की थॉमस के अच्छे मित्रों में से एक हैं। स्वयं अनेकों मामलों की पैरवी करते हुए लिली थॉमस ने मानवाधिकार के लिए कई मोर्चे सम्हाले जिनमे से अधिकाँश में उन्हें सफलता ही हासिल हुई।
                             वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति पर थॉमस बेहद स्पष्ट मत रखते हुए कहती हैं, “ इस देश को भ्रष्ट या गुंडे चलाएँ, ये नहीं हो सकता। इसीलिए तो मुझे जनप्रतिनिधित्व कानून के उस अंश पर आपत्ति थी जिसमे प्रावधान किया गया है कि दोषी करार दिए जाने के बाद भी जनप्रतिनिधि अपनी कुर्सी पर बने रह सकते हैं अगर वो उस अदालत के फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती देते हैं।”
                              लिली थॉमस सीरियन ईसाई होते हुए भी हिन्दू संस्कृति की बड़ी पैरोकार हैं। 2012 में भारत के प्रधान न्यायाधीश अल्तमश कबीर के पूछने पर कि, “लिली, आप क्या चाहती हैं?” उन्होंने सादगी से उत्तर दिया,”मैं देश में सात्विक संसद चाहती हूँ!”
                             अदालत को संविधान का अभिभावक एवं आम लोगों को उसका लाभार्थी मानने वाली लिली थॉमस कहती हैं, “हम अच्छा प्रशासन तब तक नहीं दे सकते जब तक अच्छे लोग न हों सरकार में! अगर कुछ अच्छे लोग चुनकर आयेंगे तो लोगों का जीवन भी अच्छा होगा।”
                              सर्वोच्च न्यायालय के अमुक फैसले के पूर्व हर गली-नुक्कड़ से आवाज़ सुनाई देती थी कि संसद में हत्यारे, लुटेरे, बलात्कारी जमे हुए हैं ऐसे में देश का विकास भला कैसे संभव है। फैसला आने के बाद भी इसकी पूर्ववत आलोचना जारी है। इसे हम समाज का स्वभाव मान सकते हैं। लिली थॉमस ने समाज की इसी मनोस्थिति को भांप लिया और 2005 में पहुँच गईं लोकहित के सबसे बड़े संरक्षक के दरवाजे पर। एक महिला के द्वारा इतना बड़ा कदम उठाया जाना साहस की मिसाल है, यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट के जाने-माने चेहरे भी लिली थॉमस को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। उनका जीवन लोक-अधिकारों के लिए समर्पित रहा है।
                             आज उम्र के पचासीवें पड़ाव पर भी थॉमस क़ानून को बारीकी से परखती हैं। उन्होंने वकालत को महज़ एक पेशा नहीं बल्कि न्याय की स्थापना का माध्यम माना है। व्यक्तिगत जीवन में लिली थॉमस बेहद सुलझी हुई शख्सियत हैं, जिनमे सहजता साफ़ झलकती है। जस्टिस फज़ल अली ने एक दफ़े लिली से शादी न करने का कारण पूछा तो बेहद शालीनता एवं सहजता से उन्होंने उत्तर दिया, “ जितने भी पुरुष मुझे पसंद आये, वो या तो संत या न्यायाधीश बन गए। मुझे कोई एक ऐसा व्यक्ति नहीं दिखा जिसमे जेम्स बांड, अब्राहम लिंकन या विंस्टन चर्चिल जैसी शख्सियत हो।” 
                        आसमान में सुराख करने का हौसला रखने और तबीयत से पत्थर उछालने की कवायद को अंजाम देने वाली महिला वकील लिली थॉमस समस्त नारी जगत के लिए मिसाल हैं।

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